एक मंजर था जब वो कहते थे की तुम परछाई हो मेरी …..
रूह मे बस्ती हो तुम मेरे …..
न जाने क्यों वो परछाई ..
से बचने लगे रात के बदले वो दिन मे निकलने लगे ….
सोचते होंगे रात मे परछाई साथ होगी मेरे ….
तोह दिन मै ही उसके साये से दूर हो लू ….
गलत फहमी के शिकार हम ऐसे हुए उनकी खुश्बू…….
को ही उनकी रूह समझ गए और अपने को खोखला करते गए….
ज्योत्स्ना सरीन